पैरागान कान्वेंट स्कूल
कक्षा – आठवीं
पाठ – १२ ( सुदामा चरित )
कविता का भावार्थ / अर्थ
“सुदामा चरित्र” की शुरुआत पत्नी के कहने पर सुदामा का द्वारिका पैदल पहुंचने से होती है।
दोहा 1.
सीस पगा न झँगा तन में, प्रभु ! जाने को आहि बसै केहि ग्रामा।, धोती फटी-सी लटी दुपटी, अरु पाँय उपानह को नहिं सामा।
द्वार खड़ो द्धिज दुर्बल एक, रह्मो चकिसों बसुधा अभिरामा।, पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा।
भावार्थ /अर्थ
उपयुक्त पंक्तियों में जब सुदामा द्वारिका में कृष्ण के महल के सामने जा पहुंचे और उन्होंने महल के द्वारपाल से कृष्ण से मिलने की इच्छा जताई। तब द्वारपाल ने महल के अंदर जाकर श्री कृष्ण को बाहर खड़े सुदामा के बारे में कुछ इस तरह बताया। द्वारपाल श्री कृष्ण से कहता हैं हे प्रभु !! महल के बाहर एक व्यक्ति बहुत ही दयनीय स्थिति में खड़ा है और आपके बारे में पूछ रहा है। उसके सिर पर न तो पगड़ी है और न ही तन पर कोई झगुला यानि कुर्ता है। उसने यह भी नहीं बताया कि वह किस गांव से पैदल चलकर यहां आया है।उसने अपने शरीर पर एक फटी सी धोती पहनी हैं और एक मैला सा दुपट्टा (गमछा) ओढ़ा है। यहां तक कि उसके पैरों में जूते या चप्पल भी नहीं हैं। द्वारपाल आगे कहता हैं। हे प्रभु !! महल के दरवाजे पर एक बहुत ही कमजोर व गरीब ब्राह्मण खड़ा होकर द्वारिका नगरी को बड़ी हैरानी से देख रहा है और आपके बारे में पूछ रहा है। साथ में अपना नाम सुदामा बता रहा है।
दोहा 2.
ऐसे बेहाल बिवाइन सों , पग कंटक जाल लगे पुनि जोए।, हाय ! महादुख पायो सखा , तुम आए इतै न कितै दनि खोए।
देखि सुदामा की दीन दसा , करुना करिकै करुनानिधि रोए।, पानी परात को हाथ छुयो नहिं , नैनन के जल सों पग धोए।
भावार्थ /अर्थ
द्वारपाल से सुदामा के विषय में सुनकर श्री कृष्ण दौड़े-दौड़े महल के बाहर आए और उन्होंने सुदामा को गले लगाया और बड़े आदर सत्कार के साथ उन्हें महल के अंदर ले गए। पैदल चलने से सुदामा के पैरों में अनगिनत छाले पड़ चुके थे। और जगह-जगह काँटे भी चुभे हुए थे।श्री कृष्ण ने सुदामा को प्यार से आसन पर बिठाया और उनके पैरों से एक एक कांटे को खोज कर निकालने लगे। कृष्ण सुदामा से कहते हैं। हे सखा!! तुम इतने दुख में अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। तुम इतने समय तक मुझसे मिलने क्यों नहीं आए। उन्होंने अपने बालसखा सुदामा के पैर धोने के लिए परात में पानी मंगवाया था। लेकिन सुदामा की ऐसी दीनहीन दशा देखकर कृष्णा रो पड़े।और उन्होंने परात के पानी को हाथ लगाये बिना ही अपने आंसुओं से ही सुदामा के पैर धो डाले।
दोहा 3.
कछु भाभी हमको दियो , सो तुम काहे न देत। , चाँपि पोटरी काँख में , रहे कहो केहि हेतु।।
भावार्थ /अर्थ
सुदामा का खूब-खूब आदर सत्कार करने के बाद कृष्ण उनसे कहते हैं “भाभी ने मेरे लिए कुछ तो अवश्य भेजा है।तुमने वह पोटली अपने बगल में क्यों छुपा रखी है। उसे मुझे देते क्यों नहीं हो ? तुम अभी भी वैसे ही हो।”
दोहा 4.
आगे चना गुरुमातु दए ते , लए तुम चाबि हमें नहिं दीने। , स्याम कह्यो मुसकाय सुदामा सों , ‘‘चोरी की बान में हौं जू प्रवीने।। पोटरी काँख में चाँपि रहे तुम , खोलत नाहिं सुधा रस भीने। पाछिलि बानि अजौ न तजो तुम , तैसई भाभी के तंदुल कीन्हें।।”
भावार्थ /अर्थ
उपरोक्त पंक्तियों में कृष्ण सुदामा को बचपन की याद दिलाते हैं। और कहते हैं हे सखा !! तुम्हें याद है बचपन में जब गुरु माता ने हमें चने खाने को दिए थे। तब तुमने मेरे हिस्से के चने भी चुपके चुपके अकेले ही खा लिए थे। मुझे नहीं दिए थे।
श्याम मुस्कुराते हुए आगे कहते हैं। लगता हैं तुम चोरी करने में काफी प्रवीण हो गए। आज भी भाभी ने मेरे लिए जो पोटली भेजी हैं। उसे तुम अपने बगल में छुपाये बैठे हो। उस भीनी-भीनी सुगंधित वस्तु को तुम मुझे क्यों नहीं दे रहे हो। लगता हैं तुम्हारी पिछली आदत अभी गई नहीं हैं। इसीलिए गुरु माता के चनों के जैसे ही तुम , भाभी के भेजे व्यजंन भी मुझे नहीं दे रहे हो।
दोहा 5.
वह पुलकनि , वह उठि मिलनि , वह आदर की बात। , वह पठवनि गोपल की , कछू न जानी जात।।
घर-घर कर ओड़त फिरे , तनक दही के काज। ,कहा भयो जो अब भयो , हरि को राज-समाज।
हौं आवत नाहीं हुतौ , वाही पठयो ठेलि।। अब कहिहौं समुझाय कै, बहु धन धरौ सकेलि।।
भावार्थ /अर्थ
कृष्णा ने सुदामा की खूब आवभगत की। सुदामा का खूब आदर सत्कार करने के बाद कृष्ण ने उन्हें खाली हाथ विदा कर दिया।उपरोक्त पंक्तियों में द्वारिका से खाली हाथ घर लौटते सुदामा के मन में आने वाले अनगिनत विचारों का वर्णन किया गया हैं ।कृष्ण से विदा लेने के बाद सुदामा अपने घर की तरफ पैदल चल पड़े। और मन ही मन सोच रहे थे एक तरफ तो श्री कृष्ण उससे मिलकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्हें इतना आदर , मान सम्मान दिया। और दूसरी तरफ उन्हें खाली हाथ लौटा दिया। सच में गोपाल को समझना किसी के बस की बात नहीं है। वो मन ही मन कृष्ण से नाराज हो रहे थे और सोच रहे थे जो व्यक्ति बचपन में जरा सी दही / मक्खन के लिए पूरे गांव के घरों में घूमता फिरता था। उससे मदद की आस लगाना तो बेकार ही है।अब राजा बन कर भी उसने मुझे खाली हाथ लौटा दिया। सुदामा मन ही मन अपनी पत्नी से भी नाराज होते हैं। और सोचते हैं कि मैं तो यहां आना ही नहीं चाहता था। लेकिन उसने ही मुझे जबरदस्ती यहां भेजा। अब जाकर कहूंगा कि बहुत सारा धन दिया है। अब इसे संभाल कर रख।
दोहा 6.
वैसोई राज समाज बने , गज बाजि घने मन संभ्रम छायो।, कैधों परयो कहुँ मारग भूलि, कि फैरि कै मैं अब द्वारका आयो।।
भौन बिलोकिबे को मन लोचत, सोचत ही सब गाँव मझायो। , पूँछत पाँडे फिरे सब सों, पर झोपरी को कहुँ खोज न पायो।।
भावार्थ /अर्थ
यह प्रसंग सुदामा के अपने गांव पहुंचने के बाद का है। सुदामा जब अपने गांव पहुंचते हैं तो वो अपने गांव को पहचान ही नहीं पाते हैं क्योंकि उनका गांव भी द्वारिका नगरी जैसा ही सुंदर हो गया था।उपरोक्त पंक्तियों में बड़े-बड़े भव्य व आलीशान महल , हाथी घोड़े , गाजे-बाजे आदि को देखकर सुदामा को यह भ्रम होता है कि वह रास्ता भूल कर फिर से द्वारका नगरी तो नहीं पहुंचा गये हैं।लेकिन भव्य महलों को देखने की लालसा से वो गांव के अंदर चले जाते हैं।तब उन्हें समझ में आता है कि यह उनका अपना ही गांव है। गांव का यह बदला रूप देखकर उन्हें अपनी झोपड़ी की चिंता सताने लगती है। फिर वो लोगों से अपनी झोपड़ी के बारे में पूछते हैं और खुद भी अपनी झोपड़ी को ढूंढने लगते हैं। मगर वो अपनी झोपड़ी को नहीं ढूंढ पाते हैं।
दोहा 7.
कै वह टूटी-सी छानी हती , कहँ कंचन के अब धाम सुहावत।,कै पग में पनही न हती , कहँ लै गजराजहु ठाढे़ महावत।।
भूमि कठोर पै रात कटै, कहँ कोमल सेज पर नींद न आवत।,कै जुरतो नहिं कोदी सवाँ, प्रभु के परताप तें दाख न भावत।।
भावार्थ /अर्थ
ऐसा माना जाता है सुदामा ने अपनी बगल में जो पोटली छुपा कर रखी थी उसमें चावल थे। श्री कृष्ण ने सुदामा से यह कहकर कि यह उपहार भाभी (सुदामा की पत्नी ) ने उनके लिए भेजा है। वो पोटली सुदामा से ले ली और उसमें से दो मुट्ठी चावल खा लिए थे। और उस दो मुट्ठी के बदले में उन्होंने सुदामा को बिना बताए दो लोकों की संपत्ति , धन-धान्य उपहार स्वरूप दे दी।यह सच्ची मित्रता का अनोखा उदाहरण है जिसमें विपत्ति में पड़े अपने मित्र की मदद भगवान श्री कृष्ण ने बिना कहे ही कर दी। उपरोक्त पंक्तियों में सुदामा को जब इस सच्चाई का पता चलता है कि श्री कृष्ण ने उनके बिना कुछ कहे ही उनकी कितनी बड़ी मदद मदद कर दी है और उन्हें अथाह धन संपत्ति व सुख सुविधा उपहार स्वरूप दे दी है। तब उन्हें श्री कृष्ण की महिमा समझ में आती हैं।अब वो अपने बालसखा श्रीकृष्ण का गुणगान करने लगते हैं। और सोचते हैं कहां तो मेरे पास एक टूटी सी झोपड़ी होती थी। अब उसकी जगह सोने का महल खड़ा है। मेरे पास पहनने को जूते तक नहीं थे। अब महावत हाथी लेकर सवारी के लिए सामने खड़ा है।मैं कठोर जमीन पर सोने वाला दलित ब्राह्मण , अब मुझे नर्म बिस्तर पर भी नींद नहीं आती है। और कभी मेरे पास दो वक्त के खाने के लिए चावल भी नहीं होते थे। अब ढेरों मन चाहे व्यंजन उपलब्ध हैं। यह सब द्वारिकाधीश की ही कृपा से संभव हुआ है। उनकी महिमा जितना गाऔं उतना कम है।
प्रश्न-अभ्यास
प्रश्न – 1:सुदामा की दीनदशा देखकर श्रीकृष्ण की क्या मनोदशा हुई? अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर -:सुदामा की दीनदशा को देखकर दुख के कारण श्री कृष्ण की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। उन्होंने सुदामा के पैरों को धोने के लिए पानी मँगवाया। परन्तु उनकी आँखों से इतने आँसू निकले की उन्ही आँसुओं से सुदामा के पैर धुल गए।
प्रश्न – 2:“पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सों पग धोए।” पंक्ति में वर्णित भाव का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर -:प्रस्तुत दोहे में यह कहा गया है कि जब सुदामा दीन-हीन अवस्था में कृष्ण के पास पहुँचे तो कृष्ण उन्हें देखकर व्यथित हो उठे। श्रीकृष्ण ने सुदामा के आगमन पर उनके पैरों को धोने के लिए परात में पानी मँगवाया परन्तु सुदामा की दुर्दशा देखकर श्रीकृष्ण को इतना कष्ट हुआ कि वे स्वयं रो पड़े और उनके आँसुओं से ही सुदामा के पैर धुल गए। अर्थात् परात में लाया गया जल व्यर्थ हो गया।
प्रश्न – 3:“चोरी की बान में हौ जू प्रवीने।”
क) उपर्युक्त पंक्ति कौन, किससे कह रहा है?
(ख) इस कथन की पृष्ठभूमि स्पष्ट कीजिए।
(ग) इस उपालंभ (शिकायत) के पीछे कौन-सी पौराणिक कथा है?
उत्तर -:(क) उपर्युक्त पंक्ति श्रीकृष्ण अपने बालसखा सुदामा से कह रहे हैं।
(ख) अपनी पत्नी द्वारा दिए गए चावल संकोचवश सुदामा श्रीकृष्ण को भेंट स्वरूप नहीं दे पा रहे हैं। परन्तु श्रीकृष्ण सुदामा पर दोषारोपण करते हुए इसे चोरी कहते हैं और कहते हैं कि चोरी में तो तुम पहले से ही निपुण हो।
(ग) बचपन में जब कृष्ण और सुदामा साथ-साथ संदीपन ऋषि के आश्रम में अपनी-अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। तभी एकबार जब श्रीकृष्ण और सुदामा जंगल में लकड़ियाँ एकत्र करने जा रहे थे तब गुरूमाता ने उन्हें रास्ते में खाने के लिए चने दिए थे। सुदामा श्रीकृष्ण को बिना बताए चोरी से चने खा लेते हैं। श्रीकृष्ण उसी चोरी का उपालंभ सुदामा को देते हैं।
प्रश्न – 4:द्वारका से खाली हाथ लौटते समय सुदामा मार्ग में क्या-क्या सोचते जा रहे थे? वह कृष्ण के व्यवहार से क्यों खीझ रहे थे? सुदामा के मन की दुविधा को अपने शब्दों में प्रकट कीजिए।
उत्तर -:द्वारका से खाली हाथ लौटते समय सुदामा का मन बहुत दुखी था। वे कृष्ण द्वारा अपने प्रति किए गए व्यवहार के बारे में सोच रहे थे कि जब वे कृष्ण के पास पहुँचे तो कृष्ण ने आनन्द पूर्वक उनका आतिथ्य सत्कार किया था। क्या वह सब दिखावटी था? वे कृष्ण के व्यवहार से खीझ रहे थे क्योंकि उन्हें आशा थी कि श्रीकृष्ण उनकी दरिद्रता दूर करने के लिए धन-दौलत देकर विदा करेंगे परंतु श्रीकृष्ण ने उन्हें चोरी की उलहाना देकर खाली हाथ ही वापस भेज दिया।
प्रश्न – 5:अपने गाँव लौटकर जब सुदामा अपनी झोंपड़ी नहीं खोज पाए तब उनके मन में क्या-क्या विचार आए? कविता के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर -:द्वारका से लौटकर सुदामा जब अपने गाँव वापस आएँ तो अपनी झोंपड़ी के स्थान पर बड़े-बड़े भव्य महलों को देखकर सबसे पहले तो उनका मन भ्रमित हो गया कि कहीं मैं घूम फिर कर वापस द्वारका ही तो नहीं चला आया। फिर भी उन्होंने पूरा गाँव छानते हुए सबसे पूछा लेकिन उन्हें अपनी झोंपड़ी नहीं मिली।
प्रश्न – 6:निर्धनता के बाद मिलनेवाली संपन्नता का चित्रण कविता की अंतिम पंक्तियों में वर्णित है। उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर – श्रीकृष्ण की कृपा से निर्धन सुदामा की दरिद्रता दूर हो गई। जहाँ सुदामा की टूटी-फूटी सी झोपड़ी रहा करती थी, वहाँ अब सोने का महल खड़ा है। कहाँ पहले पैरों में पहनने के लिए चप्पल तक नहीं थी, वहाँ अब घूमने के लिए हाथी घोड़े हैं, पहले सोने के लिए केवल यह कठोर भूमि थी और अब शानदार नरम-मुलायम बिस्तरों का इंतजाम है, कहाँ पहले खाने के लिए चावल भी नहीं मिलते थे और आज प्रभु की कृपा से खाने को मनचाही चीज उपलब्ध है। परन्तु वे अच्छे नहीं लगते।